डर है ..... संभावित अनिष्ट की आशंका का, चिंतन की ज्वाला में जलने का, मोह के मकड़जाल में फंसने का, और रिश्तों के बिखरने का । डर है ..... भविष्य की रूपरेखाओं के मिटने का, लक्ष्य के मार्ग में न टिक पाने का, अहंकार और लोभ के प्रवाह आने का, और अंततः इस दुनिया से जाने का । - तरुण
ज्ञान वह है , जो हमें हमारी इन्द्रियों से मिलता है। हम किसी को देखते या सुनते हैं , तभी हमें कुछ पता चलता है। क्या आपने कभी सोचा है, कि कैसे एक माँ जो अपने बच्चे से दूर रहती है , फिर भी उसे पता चल जाता है कि उसके बेटे / बेटी की तबियत खराब है ? यह अंत:प्रज्ञा है। अंत:प्रज्ञा ज्ञान प्राप्ति का वह साधन है , जिसमे इन्द्रियों की भूमिका नहीं होती। किन्तु तब भी वह प्रत्यक्ष ज्ञान की भांति स्पष्ट होता है। उस िस्थति में यह पता नहीं चल पाता कि ज्ञान कैसे मिला , किन्तु कई बार यह ज्ञान सही भी होता है। इसी प्रकार डेजा वू (Deja - Vu ) भी होता है , जिसमे हमें कभी कभी लगता है कि यह घटना हमारे साथ पहले भी हो चुकी है। हो सकता है यह किसी प्रकार से दिमाग की स्मृति क्रियाओं से जुड़ा हुआ हो किन्तु एक संभावना तो रहती ही है कि यह भी अंत:प्रज्ञा है। अंतरात्मा भी इसी प्रकार अंत:प्रज्ञा का ही एक रूप है , जो हमें परामर्श देता है कि कोई कृत्य जो हम कर रहे हैं वह नैतिक है या अनैतिक ? इसके सम्बन्ध में अलग अलग व्यक्तियों के अलग अलग मत हैं। सिग्मंड फ्रॉयड ने इसे सुपर ईगो कहा है, तो वही कुछ धर्मशास्त्री मानते